अपने देश में चोर और बेईमान वो है जो पकड़ा जाए, और उससे पहले समाज ने मानो सबको जैसे इमानदारी का लाइसेंस दे रखा है कि जाओ कैसे भी हो पैसा कमाओ. जब तक न पकडे जाओ फिक्सिंग और सेटिंग करते रहो, चाहे वो क्रिकेट हो, राजनीति या फिर काम धंधा. घर परिवार और समाज में न सिर्फ़ तुम्हे अपनाया जाएगा बल्कि सर आँखों पर बिठाया जाएगा.
पैसे का रंग और समाज में सडांध
गुरुनाथ मय्य्प्पन, के श्रीसंथ, अजीत चंदालिया, अंकित चव्हाण, बिंदु दारासिंह, पवन बंसल, ए राजा, सुरेश कलमाड़ी, अब्दुल करीम तेलगी, हर्षद मेहता, केतन पारिख ....... एक लंबी श्रृंखला है ऐसे हिंदुस्तानियों की जो पैसे के रंग में फर्क नहीं करते. उनके लिए पैसा कैसा भी हो अच्छा है. उसके लिए इन्हें कुछ भी कर गुज़रना नागवार नहीं है. नैतिकता-अनैतिकता, कानूनी-गैरकानूनी और सही-गलत के फर्क को इन्होने कब का छोड़ दिया है. जब इन्हें अपनी और परिवार की मान मर्यादा का ही ध्यान नहीं तो देश की मान मर्यादा की तो बात छोड़ ही दें तो अच्छा है.
देश की मान मर्यादा की बात हमने इसलिए की क्योंकि इनमें से कई ने उसकी रक्षा करने की कसम खाई थी. याद कीजिये, भारत की जर्सी पहने गर्व से सीना उठाये कितनी बार के श्रीसंथ ने राष्ट्रीय गान गाते हुए भारत माता की वंदना करते हुए कहा था “तव शुभ आशिष मागे”. सांसद और भारत का मंत्री बनते हुए कितनी बार राष्ट्रपति भवन और संसद भवन में कितने बंसलों, राजाओं और कल्माडियो ने “सच्चे मन और शुद्ध अन्तःकरण से भारत के संविधान की” मर्यादा अक्षुण्ण रखने और उसका पालन करने की कसम खाई थी. यकीन कीजिये कि इसके बाद भी इन्हें मौका मिला तो उतनी ही बेशर्मी से ये फिर खड़े होंगे सीना तान के. ये थी इस किस्म के लोंगों की दूसरी विशेषता.
एक और खासियत है इस किस्म के लोंगों में - वो ये कि इनमें से कोई भी किसी मजबूरी के कारण बेईमान नहीं बना. क्रिकेटर श्रीसंथ को सिर्फ़ आई पी एल में ही खेलने के लिए सालाना 681000 अमेरिकी डॉलर यानि तीन करोड चौहत्तर लाख रुपये (3,74,55000) मिलते रहे हैं. ये महीने का इकतीस लाख से ज्यादा बैठता है. अर्थात पूरे साल भर तक रोज का एक लाख से भी ज्यादा ! पवन बंसल भी करोंड़ों में खेलते हैं. बाकी तो अरबोँ में खेलने वाले लोग थे. लालच और सिर्फ़ लालच इनकी फितरत है.
लेकिन इन बेईमानों को इतना बेईमान बनाने में हमने भी कोई छोटी भूमिका नहीं अदा की. सोचिये क्या सचमुच हमारे समाज में ईमानदारों की इज्ज़त है? ज़रा अपने आस पास, परिवार, गांव, मोहल्ले और शहर में नज़र दौडाइये. जो भी रिश्तेदार या दोस्त पैसेदार है क्या उसके बारे में हम कभी पूंछते भी हैं कि वो पैसा कैसे लाया? बल्कि उल्टा है. कई स्थानों पर तो बड़े गर्व से पूंछा जाता है “उपर का कितना कमा लेते हो?” क्या हम पैसे वाले नेताओं, अफसरों और व्यापारिओं को बड़े जतन से मोहल्ला समितिओं, धार्मिक स्थानों और उत्सव समितियों के अध्यक्ष नहीं बनाते? उनके साथ खिंचाए फोटुओं को बड़े मान के साथ अपने घर में (और अब फेसबुक मे) नहीं सजाते? क्या तब हम पूंछते हैं कि ये धन तुमने कहाँ से कमाया?
और तो और बी सी सी आई के तमाम गडबड घोटालों और आई पी एल की फिक्सिंग जाहिर होने के बाद भी क्या दर्शकों की भीड़ कम हुई? अपने पद की ज़िम्मेदारी से सिर्फ़ “अलग हुए” स्वनामधन्य श्रीनिवासन इस बात को अपने पक्ष में लेकर जोर जोर से कहा कि फिक्सिंग के मामले के बाद भी आई पी एल के फ़ाइनल में दर्शक तो भर भर के आये. इसी कारण क्रिकेट बोर्ड का श्रीनिवासन को पद से सिर्फ़ अलग रखने जैसा स्वांग भी अपने देश में चल जाता है.
असलियत तो ये है कि अपने देश में चोर और बेईमान वो है जो पकड़ा जाए, और उससे पहले समाज ने मानो सबको जैसे इमानदारी का लाइसेंस दे रखा है कि जाओ कैसे भी हो पैसा कमाओ. जब तक न पकडे जाओ फिक्सिंग और सेटिंग करते रहो, चाहे वो क्रिकेट हो, राजनीति या फिर काम धंधा. घर परिवार और समाज में न सिर्फ़ तुम्हे अपनाया जाएगा बल्कि सर आँखों पर बिठाया जाएगा. ज़रा सोचिए जब समाज की सोच में ही पैसे का सिर्फ़ एक रंग हो गया है तो फिर इस बेईमानी और क्रिकेट बोर्ड के गडबड घोटाले पर इतना हो हल्ला क्यों? जब पूरे समाज की सोच में इतनी सडांध हैं तो फिर हम क्यों अपेक्षा करते हैं इन मौकापरस्त और लालची व्यक्तियों से इमानदारी और मर्यादा पालन की. चमत्कार की उम्मीद में हम कभी किसी जयप्रकाशनारायण की तरफ देखते हैं तो कभी किसी अन्ना की तरफ. कभी सोचते हैं कि कोई और जादू की छड़ी चलाएगा और भ्रष्टाचार छूमंतर हो जाएगा. पर एक छोटा सा सबक भूल जाते हैं कि जो कुछ करना है हमीं को करना है. लूटपाट के धंधे में ये सब तो चोर चोर मौसेरे भाई हैं.
उमेश उपाध्याय
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