Wednesday, July 10, 2013

#Kedarnath Tragedy शर्म आती है

क्या लोगों की लाशों को इसलिए चील कौवों को खाने के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वो आम हिन्दुस्तानी  तीर्थयात्री हैं और सीधे सीधे एक वोट बैंक का हिस्सा नहीं हैं?


उत्तराखंड में आज भी आम भारतीय नागरिकों की लाशें सड रहीं हैं. सैकड़ों हिन्दुस्तानी आज भी अपने लापता परिजनों के लौट आने की उम्मीद में दर दर भटक रहे हैं. भयानक आपदा में किसी तरह बच गए उत्तराखंड के हजारों लोग आज भी बिना किसी सहायता के दूरदराज के अपने गावों मे किसी तरह ज़िंदगी की आस लगाए दिन काट रहे हैं. मगर क्या आज  अखबार के पन्नों, टी वी की चर्चाओं और इन्टरनेट पेजों को देखकर ऐसा लगता हैं की इस देश का एक बड़ा हिस्सा इस भयानक विपदा के दौर में हैं? और उससे पीड़ित जिनकी संख्या लाखों में हैं देश के कोने कोने परेशान हैं? 


शासकीय दल कोंग्रेस का तो क्या कहा जाए? उसके स्वनामधन्य नेतागण हर जगह साम्प्रदायिकता का भूत तलाश रहे हैं. पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बोधगया मंदिर के बम धमाकों को भी नहीं छोडा. वे ट्वीट करते हैं “ मोदी ने बिहार भाजपा कार्यकर्ताओं को नितीश को सबक सिखाने को कहा और अगले दिन ही बोधगया के महाबोधि मंदिर में बम धमाके हो गए. क्या इनमें कोई संबंध है? मुझे नहीं मालूम....” अरे आपको नहीं मालूम तो छोड़ दीजिए न. आतंकवादी घटनाओं पर राजनीति क्यों?  

इस  सरकार की व्यस्ततायें तो अजीब हैं. यू पी ए को लग रहा है कि कहीं चुनाव की गाड़ी निकल न जाए तो उसने संसद के सत्र का इंतज़ार भी नहीं किया और अध्यादेश के सहारे खाद्य सुरक्षा बिल ले आयी. सोनिया और राहुल गाँधी ने भी एक बार रस्म अदायगी करके दोबारा देखने की कोशिश नहीं की कि क्या हाल हैं उत्तराखंड में बचे खुचे लोंगों का.


हिंदू हितों की झंडाबरदार भारतीय जनता पार्टी भी व्यस्त है अगले आम चुनाव की तैयारी में या फिर उसके नेता एक दूसरे को निपटाने में लगे हुए हैं. एक दूसरे की सीडी बनाने से उन्हें फुर्सत कहाँ है? मध्य प्रदेश का प्रकरण हम सबके सामने है. पार्टी का संसदीय बोर्ड व्यस्त है अगले चुनाव की रणनीति बनाने में. अरे इतनी जल्दी क्या है? इस बड़ी आपदा के बाद कुछ इंतज़ार तो हो सकता था? ऐसा लगता है कि पार्टी के अनुसार उत्तराखंड से विपदा निपट गई है.


उधर माकपा इशरत जहान के परिवार के सदस्यों को लेकर इधर उधर घूम रही है और नरेन्द्र मोदी का इस्तीफ़ा माँग रही है. पूरे  देश में इशरत के मामले में जैसे एक सियासी फूटबाल खेला जा रहा है. टीवी की चर्चाओं को देखिये किस तरीके से सीबीआई और आई बी को एक दूसरे के सामने खड़ा किया जा रहा है? ज़रा पार्टियों के नेताओं से पूँछिये कि क्या सारी संस्थाओं को अपने वोट बैंक के खेल में कुर्बान कर देंगे? इशरत के मामले में सच ज़रूर खोजिये मगर उनसे पूंछा जाना चाहिए कि  क्या यही एक एनकाउंटर देश में हुआ है पिछले सालों में? क्या ये सही नहीं है कि आतंकवाद के खिलाफ चाहे किसी भी सरकार रही हो - पंजाब, जम्मू कश्मीर या फिर असम – क्या सिर्फ़ रुलबुक से काम किया है विभिन्न राज्य सरकारों ने? याद रखने की बात है कि ये सरकारें ज़्यादातर कोंग्रेस की रही हैं.


इशरत जहान एनकाउंटर, २०१४ के चुनाव, खाद्य सुरक्षा बिल और इन सब पर होने वाली राजनीति- सब ठीक है. मगर जब घर में गमी हो और आफत पडी हो तो इन बातों को पीछे छोडा जाता है. मुद्दा है कि इतनी बड़ी त्रासदी के बाद देश की बड़ी पार्टियों,  मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग की प्राथमिकताएं क्या हैं? 


मुझे शर्म आती है ये देखकर कि इस विपदा के महौल में भी सब लगे हैं अपने अपने स्वार्थ में. पूरे देश में जैसे संवेदनशीलता की कमी हो गई है. नहीं तो क्यों किसी बड़ी पार्टी के बड़े नेता ने उत्तराखंड में डेरा जमाया और कहा कि स्थति सामान्य होने तक वह तीर्थ्यात्रिओं के लिए कार्य करेगा? क्यों मीडिया ने भी सियासी पैतरेबाजिओं की ख़बरों से दूर होकर इस त्रासदी के फोलोअप को उस शिद्दत के साथ नहीं लिया जिस पैमाने पर तबाही हुई है? क्या लोगों की लाशों को इसलिए चील कौवों को खाने के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वो आम हिन्दुस्तानी  तीर्थयात्री हैं और वे सीधे सीधे एक वोट बैंक का हिस्सा नहीं हैं?  

उमेश उपाध्याय  
८ जुलाई १३

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