Saturday, July 6, 2013

#Dhoni उत्तराखंड : संवेदनाओं की मौत

भारतीय क्रिकेट  कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने पिछले दिनों  इंग्लॅण्ड के एजबेस्टन में चैम्पियन ट्रोफी लेते वक़्त एक शब्द भी उत्तराखंड की भीषण त्रासदी के बारे में नहीं बोला. हालांकि उनका पैतृक गांव उत्तराखंड के अल्मोड़ा में ही है. न ही इतने बड़े हादसे के बाद  भारतीय टीम ने मैच के दौरान मृत तीर्थयात्रियों से सम्वेदना व्यक्त करने के लिए कोई काली पट्टी बांधी. सोचिये अगर मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में कोई छोटा मोटा हादसा भी हुआ होता तो किस तरह सारे खिलाडी और बीसीसीआई शोक मना रहे होते !

ऐसा नहीं कि इस भयानक त्रासदी के प्रति संवेदनहीनता सिर्फ़ क्रिकेटरों तक सीमित है. राहुल गांधी को त्रासदी के आठ दिन बाद हादसे की सुध आई क्योंकि उससे पहले वे विदेश में अपना जन्मदिन मनाने में व्यस्त थे. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पहले तो हादसे के तुरंत बाद दिल्ली आ गए और फिर उनकी स्विट्जरलैंड यात्रा की कहानियां चलती रहीं.

आज ही मैंने फेसबुक पर एक बड़ी मल्टी नेशनल विज्ञापन एजेंसी के अधिकारी की टिप्पडी पढ़ी की अगर उत्तराखंड के दुकानदारों नें मुसीबत में पड़े तीर्थयात्रियों से एक रोटी के २५० रूपये और पानी की बोतल के ३०० रुपये माँग भी लिए तो क्या बुरा किया. यह तो माँग और पूर्ती का नियम है. उसके माल की माँग ज्यादा थी सो उसने ज्यादा कीमत ले ली !!

और तो और छोटी मोटी घटनाओं को इवेंट बनाकर बेचने वाले टीवी चेनलों के बड़े बड़े एंकर/एडिटर  जो कि हर जगह “घटना स्थल से खुद लाइव” करने पहुंचते रहे है त्रासदी के हफ्ते भर बाद भी अपने स्टूडियो तक सीमित हैं क्योंकि देश के गांव गांव से आये हुए इन तीर्थ्यात्रिओं की न तो कोई एक आवाज़ हैं न ये टीआरपी बढाने वाले है. इसलिए इस हादसे की विभीषिका कितनी ही तीव्र क्यों न हो, मरने वालों का आंकडा कई हजारों में क्यों न पहुच जाए, लोगों की तकलीफें कितनी गहरी क्यों न हों – जब तक ये बाज़ार में बेचने लायक नहीं है तब तक इसका कोई मोल नहीं है.

सारी दिक्कत यही है. पिछले दो दशकों में देश में हर चीज़ का बाजारीकरण हो गया है. हमारे रिश्ते नाते, भावनाएँ, व्यवहार, हादसे, उत्सव - सब जैसे अब नफा नुक्सान की तराजू में तोले जाते हैं. सब “प्रोफेशनल” हो गया है – किसका किससे कितना फायदा और किसका किससे कितना काम? अब इस विशुद्ध धंधेबाजी के दौर में ये तीर्थयात्री न तो किसीका बाज़ार हैं और न ही वोट बैंक. तो फिर इनके लिए कौन बेवजह परेशान हो?

यही अगर किसी एक वोट बैंक के साथ हुआ होता तो हम देखते कि किस तरह हर पार्टी अपने झंडे लगाकर गांव गांव में “सेवा कार्य “ में जुटी होती? किस तरह पार्टिओं ने अपने संसाधन झोंक दिए होते. बड़े बड़े नेता किस तरह वाहन तम्बू गाड़ कर बैठ जाते. ये कम त्रासदी नहीं है कि हादसे के पहले कुछ दिनों में उत्तराखंड में राहत और बचाव कार्यों के लिए हेलिकोप्टरों की बेहद कमी थी. अगर देश के बड़े राजनीतिक दल कोंग्रेस और भाजपा ही उन हेलिकोप्टरों और छोटे विमानों को ही, जिनमें इनके नेता घूमते रहते हैं प्रदेश में भेज देते  तो कई जाने बचाई जा सकती थी.

आजादी के बाद देश मे आई बड़ी और भयानक प्राकृतिक विपदाओं में से एक है उत्तराखंड की ये विपदा. इसका घाव और भी गहरा है क्योंकि देश के तकरीबन हर राज्य से कोई न कोई इसका शिकार  ज़रूर हुआ है. मरने वालों की संख्या हज़ारों में हो सकती हैं. संपत्ति के नुक्सान का अंदाज़ा लगाने में बहुत समय लगेगा. अगर ये राष्ट्रिय विपदा नहीं है तो क्या है? पर विचित्र बात ये है कि देश का सत्ता प्रतिष्ठान सिर्फ़ सेना और अफसरों के हाथ बचाव और राहत कार्य छोड़ कर बैठा है. उसकी अपनी संवेदनाएं जैसे मर गई हैं.

वैसे यहाँ मैं क्रिकेटर शिखर धवन की तारीफ करना चाहूँगा कि ने अपना गोल्डनबैट पुरस्कार उन्होंने हादसे के शिकार तीर्थयात्रियों को समर्पित किया ! धन्यवाद शिखर! तुमने अभी उम्मीदों को जिंदा रखा है!

उमेश उपाध्याय
२४ जून २०१३

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