Friday, July 3, 2015

सांसदों की तनख्वाह और हमारा दोगलापन

http://khabar.ibnlive.com/blogs/umesh-upadhyay/mp-indian-parliament-387651.html


तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है दुई न होंहि इक समय भुआला, हंसबि ठठाव फुलावहूँ गाला. यानि आप गाल फुलाना और हँसना दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते. मगर सांसदों की तनख्वाह के मामले में हम ऐसा ही कर रहे हैं. एक तरफ हम चाहते हैं कि हमारे एमपी ईमानदार रहें और दूसरी तरफ जब संसद की समिति ने उनकी तनख्वाह बढ़ाने की सिफारिश की है तो एक साथ सब उन पर टूट पड़े हैं. मानों कोई ऐसा करके उन्होंने कोई जघन्य अपराध कर दिया हो.

सांसदों की तनख्वाह आज है 50000 रुपये महीने. ज़रा सोचिये कि क्या एक जन प्रतिनिधि इतनी तनख्वाह में काम चला सकता है? एक सांसद की ज़िम्मेदारी है अपने क्षेत्र की जनता का दिल्ली में प्रतिनिधित्व करना. इसके लिए लोगों से मिलना, उनके सुख दुःख में शरीक होना, जनता की समस्यायों में उनके साथ खड़ा होना तथा लोगों की बातों को ऊपर तक पहुंचाना, उसके रोज़ के काम का हिस्सा है. हर एमपी से मिलने रोजाना सैकड़ों लोग आते है. ये सब लोग अक्सर दूर दूर से आते है. कल्पना कीजिये कि सिर्फ इन लोगों के चाय पानी और नाश्ते की व्यवस्था में ही कई सांसदों की ये पूरे तनख्वाह खर्च हो जाती होगी !

यही नहीं हर सांसद को दो घर रखने पड़ते हैं, एक अपने लोक सभा क्षेत्र में और दूसरा दिल्ली में. क्या ये घर हवा पानी से चलते होंगे? साथ ही अपने क्षेत्र में उसे कई जगह कार्यालय चलाने होते हैं क्योंकि हमारे संसदीय क्षेत्र काफी बड़े बड़े हैं. उनके खर्चे का सोचा है कभी आपने? हर एमपी के पास शादी-विवाह, मुंडन, यज्ञोपवीत, जन्मदिन, त्यौहार आदि के अनेकों निमंत्रण रोज़ आते हैं. जो एमपी इनमें नहीं गया वह अगली बार चुना ही नहीं जा सकता. अपनी परम्परा के मुताबिक़ जब भी आप ऐसे आयोजनों में जाते है तो कुछ गिफ्ट, भेंट या शगुन भी देना ही होता है. अनुमान लगाइए क्या इसीका खर्चा हज़ारों में नहीं होता होता होगा ?

इसी तरह में जानता हूँ कि दिल्ली में एमपी के सरकारी आवास में उसके क्षेत्र के लोग आते जाते और ठहरते हैं. कोई इलाज़ के लिए आता है, तो किसी का बच्चा नौकरी के इंटरव्यू के लिए. ये ज़्यादातर गरीब तबके के लोग होते हैं. इनके आने जाने, खाने पीने, अक्सर दवाई और ठहरने की व्यवस्था एमपी से अपेक्षित होती है. यकीन नहीं आता तो दिल्ली के नार्थ और साउथ ब्लॉक में एमपी बंगलों में जाकर देख लीजिये. क्या लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई भी संवेदनशील सांसद इससे मना कर सकता है? नहीं, बल्कि मैं मानता हूँ कि यह उसके काम का हिस्सा है और भारतीय लोकतंत्र के ज़िंदा होने का नमूना है. क्या हमारी व्यवस्था इसके खर्च का आकलन नहीं करेगी?
ईमानदारी कोई हवा में पैदा नहीं होती, उसकी व्यवस्था सिस्टम तथा समाज को करनी पड़ती है. अगर ये खर्च सही और कानूनी तरीके से नहीं होगा तो कोई न कोई तो ये बोझ उठाएगा ही. एमपी के ये खर्चे  अगर कोई व्यापारी या अन्य उठाएगा तो वह एमपी से अपने काम भी करवाएगा.  जब ये सांसद, खर्च उठाने वाले के लिये काम करेगा तो फिर वही लोग भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार चिल्लायेंगे जो अब टीवी स्टूडियो के अन्दर बैठकर अथवा अपने लेखों में जोर जोर से कह रहें हैं कि सांसदों के भत्ते और वेतन ना बढे.  मैं ये कतई नहीं कह रहा कि सिर्फ वेतन और भत्ते बढ़ा देने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा या फिर सभी एमपी राजा हरिश्चन्द्र के अवतार बन जायेंगे. लेकिन ये ज़रूर कह रहा हूँ कि जो ईमानदार बने रहना चाहते हैं उनके लिए ऐसी व्यवस्था करना कि वे बेईमान न बने, समाज की ज़िम्मेदारी है.

सिर्फ लोक लुभावन बात करके हम तालियां तो पिटवा सकते हैं मगर क्या ये लोकतंत्र और देश के दूरगामी हित की बात है?  हम शुतुरमुर्ग की तरह इस सच्चाई और यथार्थ से मुहं नहीं मोड़ सकते कि लोकतंत्र एक महंगी व्यवस्था है. उसका इंतज़ाम करना हमारी ज़िम्मेदारी है. दरअसल सांसदों का वेतन और पेंशन इतना होना चाहिए कि वे अपने सारे खर्च बिना किसीका का अहसान लिए उठा सकें. इसके लिए उनका वेतन केंद्र सरकार के सचिव पद के बराबर भी कर दिया जाए तो गलत नहीं होगा. इससे बारबार सांसदों को इस बात से रूबरू नहीं होना पड़ेगा कि खुद वो अपने लिए तनख्वाह बढ़ाने की सिफारिश करें और जैसे ही ऐसा हो, लोग उनपर लाठी डंडा लेकर पिल पड़ें. बेहतर तो ये होगा कि एक ऐसी व्यवस्था कर दी जाए कि समय समय पर सांसदों के वेतन भत्ते अपने आप बढ़ते रहे.   

पिछले कई वर्षों से देश में भ्रष्टाचार को लेकर बहस चल रही है. इसमें नेताओं के घोटालों का ज़िक्र होता है. सांसदों  के वेतन और भत्तों के बहाने अपने सिस्टम को साफ़ करने की एक ईमानदार पहल हम आज कर सकते है. हम सांसदों से कह सकते है कि तुम अपनी तनख्वाह दोगुनी नहीं चार गुनी करलो लेकिन उसके बाद ईमानदारी से रहो. ये बात भी सही है कि जिसकी नीयत में ही खोट हो उसे आप कितना भी वेतन देकर ईमानदार नहीं बना सकते. मगर जो सांसद ईमानदार बने रहना चाहतें हैं वह मजबूरी में व्यापारियों, दलालों, ठेकदारों और भ्रष्ट अफसरों के चंगुल में न फंसे इसका इंतज़ाम देश ज़रूर कर सकता है. नहीं तो भ्रष्टाचार पर की जाने वाली बहस और चिन्ता सिर्फ समाज का दोगलापन ही मानी जायेगी.

उमेश उपाध्याय

2 जुलाई 2015

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