डा.
कलाम - ज्यों की त्यों धर दीनी रे चदरिया.......
दुनिया से जाते समय कुछ लोग सिर्फ भाव छोड़कर जाते
हैं, कुछ लोग सिर्फ सिर्फ शब्द छोड़कर जाते हैं और कुछ सिर्फ कर्म छोड़कर. डा अबुल
पाकिर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम जो कि उनका पूरा नाम है - भाव , शब्द और कर्म तीनों
ही छोड़कर गए. शब्द-भाव-कर्म तीनों में से अगर एक भी उच्च श्रेणी का हो तो दुनिया
उसे महानता का दर्ज़ा देती है. डा. कलाम के व्यक्तित्व में इन सब का ही अद्भुत
तालमेल था. इस नाते वे महानता की उच्च श्रेणी को भी पार कर चुके थे.
मैं उनको नज़दीकी से जानने का दावा तो नहीं कर
सकता परन्तु मुझे उनसे दो बार व्यक्तिगत रूप से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
दोनों ही बार उन्होंने अपनी सादगी, लगन और गहनता की एक अमिट छाप मन पर छोड़ दी.
पहली बार मैं उनसे 2003 में मिला था. मेरे साथ एम्स के पूर्व डाइरेक्टर डॉ पी के
दवे और मेरे मित्र राजेश भी थे. हम उन्हें एक अस्पताल के उद्घाटन के लिए आमंत्रित
करने गए थे. कोई 15 मिनट का समय राष्ट्रपति सचिवालय ने हमें दिया था. मैं उस समय
आश्चर्यचकित हो गया था जब मिलते ही उन्होंने हमारे भेजे गए आमंत्रण की कई बातों का
ज़िक्र किया. वे अपना होमवर्क करके बैठे थे. पूरे पंद्रह मिनट उन्होंने तल्लीनता के
साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे विषय पर बात की. हमारे प्रोजेक्ट के लिए बारीक सुझाव
दिए. हम पूरी संतुष्टि का भाव लेकर लौटे. दूसरी बार उनसे मिलना कोई तीन साल पहले
उनके आवास पर हुआ. और फिर वही शालीनता और सादगी. मुझे याद है कि वे स्वयं पोर्टिको
तक छोड़ने आये थे.
ऐसे कई लोग आपको मिलेंगे जिनके जीवन पर डा कलाम
ने एक छोटी सी ही भेंट में गहरी छाप छोड़ी है. मगर देश की मानसिकता में कलाम साहब
ने जो परिवर्तन किया उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती. भारत आजादी के बाद से ही
अपने को एक विकासशील देश कहने में गौरव पाता था. कलाम साहब को ये मंज़ूर नहीं था
क्योंकि वे मानते थे कि विकासशील होने में पिछड़ेपन का भाव है. देश के सुदूर कोने
रामेश्वरम् में जन्मे कलाम साहब राष्ट्रपति बनते ही वे पूरी लगन से इस देश को एक
ध्येय देने में लग गए. वो था 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देना.
सिर्फ विचार देकर वे रुके नहीं. उन्होंने इसे देश के मानस में स्थापित करने का
लक्ष्य रखा और इसके लिए उन्होंने देश के बच्चों को चुना. राष्ट्रपति भवन में
स्कूलों से आये आमंत्रण के बारे में खास हिदायत थी. देश के कोने कोने में स्कूली
बच्चों से मिलकर उन्होंने अपने इस विचार को अगली पीढ़ी के मन में स्थापित किया.
उनके इस विलक्षण योगदान के लिए ये देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा.
वे बहुत कुछ थे – वैज्ञानिक, लेखक, उच्च कोटि के
शिक्षक, चिन्तक आदि आदि. परन्तु सबसे बढ़कर थे वे एक कर्मयोगी. और वे दुनिया से गए
भी तो कैसे! काम करते हुए. धन्य हैं, ऐसा जीना और ऐसा मरना कितनों को नसीब होता
है? कलाम साहब मनसा – वाचा – कर्मणा ऋषि
थे. हर चीज़ में समन्वय बिठाने वाले. चाहे वह फिर गीता और कुरान हो या फिर वेधशाला
और वीणा के सुर. वे हमेशा देश और समाज को कुछ देने वाले रहे , लेने वाले नहीं बने.
संभवतः संत कबीर ने उनके लिए ही लिखा था - “ज्यों
की त्यों धर दीनी रे चदरिया”.
ऋषि कलाम को नमन !
उमेश उपाध्याय
28 जुलाई 2015
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