Monday, July 27, 2015

याकूब मेमन की फांसी के बहाने... #YakubHanging

याकूब मेमन की फांसी रुकवाने के लिए देश की कई संस्थाएं और लोग लगे हुए हैं। एक्टर सलमान खान के इस विवाद में कूदने के बाद ये मामला और भी पेचीदा हो गया है। फांसी एक ऐसा दंड है जिसे दिए जाने के बाद और कोई गुंजाइश बचती ही नहीं है इसलिए देश की स्थापित न्यायिक प्रक्रिया के तहत जो भी प्रावधान हैं उनके अन्दर याकूब को बचाने की कोशिश लाजिमी ही है इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
याकूब की फांसी को लेकर बहस कई स्तर पर चल रही है। एक तरफ उसका परिवार है जो इस बहस के मानवीय पक्ष को रेखांकित करता है मगर परिवार तो उन लोगों के भी थे जिनकी मौत मुंबई बम धमाकों में हुई थी। उस मानवीय पक्ष का क्या? एक और पक्ष फांसी की सज़ा के विरोधियों का है जो कहते हैं कि हमें जान लेने का हक नहीं क्योंकि हम जान दे नहीं सकते। फांसी की सज़ा हो या नहीं इसके पक्ष और विपक्ष में कई तर्क हैं। ये एक बड़ी बहस है को दुनिया के कई मुल्कों में चल रही है। मगर सच तो ये है कि आज के दिन फांसी का प्रावधान देश के क़ानून का हिस्सा है जिसके तहत याकूब को फांसी दी गई।
एक तर्क ये दिया जा रहा है कि जब याकूब के भाई टाइगर और उनके रहनुमा दाऊद इब्राहिम को पकड़ा तक नहीं जा सका है तो सिर्फ याकूब को ही फांसी क्यों? एक्टर सलमान खान ने अपनी ट्वीट (जिसे बाद में उन्होंने वापस ले लिया) में यही बात कही है। लेकिन सोचने की बात है कि क्या टाइगर और दाउद के दोषी होने से याकूब निर्दोष साबित हो जाता है? क्या कोई कह सकता है कि याकूब मेमन मुंबई बम धमाकों में शामिल नहीं था? उसे मालूम था कि वो क्या कर रहा है और उसका क्या नतीज़ा होगा। उसे फांसी एक बहुत लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के बाद सुनाई गई है जहां हर बार उसे अपनी बात कहने और निर्दोष साबित करने का मौका मिला है। बल्कि उल्टे लोगों की शिकायत तो ये है कि इतने संगीन जुर्म का फैसला आने में इतना वक़्त लगना देश के लिए ठीक नहीं है? इससे अपराधियों के हौंसले बुलंद होते हैं और इसी कारण भारत को एक ‘सॉफ्ट स्टेट’ माना जाता है।
देश की कई प्रसिद्ध हस्तियों ने भी राष्ट्रपति को ख़त लिखकर याकूब के लिए नरमी बरतने की प्रार्थना की है। इन लोगों का तर्क है कि याकूब की मानसिक हालत ठीक नहीं है इसलिए उसे सूली पर चढ़ाना ठीक नहीं होगा। साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि याकूब ने आत्म समर्पण किया इसलिए भी उसे फांसी देना ठीक नहीं होगा। वैसे अदालतें इस बात पर गौर कर चुकी होंगी और इस नई अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट फैसला लेगा इसलिए इसपर अभी कोई राय देना ठीक नहीं होगा।
जैसा हमने कहा, याकूब और उसके परिवार को पूरा हक है कि वे उसे फांसी से बचाने की कोशिश करें। देश का संविधान और न्याय व्यवस्था उन्हें इसकी इजाज़त देती है। मगर याकूब को बचाने के नाम पर एक खतरनाक तर्क दिया जा रहा है वो ये कि याकूब को फांसी की सज़ा इसलिए सुनाई गई क्योंकि वो एक ख़ास मज़हब से ताल्लुक रखता है। आमतौर पर विवाद भरे बयान देने वाले आज़म खान और अब खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता साबित करने पर तुले ओवैसी ही ये तर्क देते तो समझा जा सकता था। मगर समाज को रास्ता दिखाने वाले बुद्धिजीवी जब ऐसी बात करें, तो बड़ी चिन्ता की बात है। यह तर्क खतरनाक ही नहीं अनुचित भी है। एक तरफ आप कहें कि देश की न्यायप्रक्रिया में आपको पूरी आस्था है और दूसरी तरफ याकूब की फांसी को मज़हबी और सांप्रदायिक आधार पर तोलें तो इसे क्या कहा जाए? यह तो सुविधाजनित अवसरवादिता हुई ना! हो सकता है कि आपकी जायज़ हमदर्दी याकूब और उसके परिवार के साथ हो, मगर इसके लिए इस तर्क का सहारा कितना उचित है? सोचिये इसके ज़रिये आप पूरे समाज को क्या बड़ा संदेश दे रहे हैं?
इसी कड़ी में ये भी कहा जा रहा है कि 1993 के मुंबई बम धमाकों की पृष्ठभूमि को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्योंकि ये विस्फोट अयोध्या में बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद हुए थे। इस बात की गहराई में जाने की ज़रुरत है। क्या ऐसा कहकर आप दुनिया में शहरी आतंकवाद की इस बर्बर और संभवतः पहली घटना को सही ठहराना चाहते हैं? एक तरफ आप कहें कि आतंकवाद का कोई धर्म या रंग नहीं होता और दूसरी तरफ आप सांप्रदायिक चश्मे से मज़हबी तराजू पर आतंकी घटनाओं को तोलें तो इसे क्या कहा जाए?
क्या किसी भी आधार पर मुंबई बम धमाकों को सही ठहराया जा सकता है? और फिर क्रिया-प्रतिक्रिया के इस सिद्धांत को आप कहां-कहां पर लागू करेंगे? इसका तो फिर कोई अंत ही नहीं होगा। फिर तो देश का हर दंगा, हर आतंकी और आपराधिक गतिविधि इस आधार पर सही बताई जा सकती है। ये तो स्पष्ट है कि याकूब मेमन की फांसी के बहाने कुछ नेता ज़रूर अपनी रोटियां सेकेंगे और वोट की राजनीति के फेर में नफरत की फसल बोने की कोशिश करेंगे। लेकिन ये बहुत ज़रूरी है कि देश का पढने लिखने वाला वर्ग आवेश में नहीं बल्कि धर्म और मज़हब से ऊपर उठकर सोचे।

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