Saturday, August 15, 2015

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष ब्लॉग: ‘अनास्था के संकट’ से आजादी #ProudIndian #IndiaAt69 #IndependenceDay


3 दिसंबर 2001 को जब आतंकवादियों ने संसद पर हमला किया तब तुरंत सोनिया गांधी ने उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन किया कि 'आप तो ठीक हैं ना?' सोनिया गांधी उस समय विपक्ष की नेता थीं। कांग्रेस और बीजेपी में खासी तनातनी थी। लेकिन विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को देश के प्रधानमंत्री की चिंता थी। ये उनके लोकतांत्रिक संस्कार थे जो संभवतः उन्होंने अपनी सास इंदिरा गांधी और पति राजीव गांधी से सीखे थे। मगर शायद उनके बेटे राहुल गांधी ने ये संस्कार उनसे नहीं सीखे। नहीं तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जो बात उन्हें एक राजनीतिक परिवार का बेटा होने के नाते कही थी, उसे वे पिछले दिनों लोकसभा में अपने भाषण में नहीं कहते।

राहुल गांधी ने लोकसभा में ललित मोदी कांड पर अपने भाषण में कहा कि 'एक दिन पहले सुषमा जी ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि तुम मुझसे नाराज़ क्यों हो बेटा?' इस व्यक्तिगत बातचीत का संसद में उल्लेख कर राहुल ने मर्यादा और आस्था कि उस लक्ष्मण रेखा को पार कर दिया जो हमारे सामाजिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। यह सिर्फ एक उदाहरण है जो आस्था के उस संकट को रेखांकित करता है जिससे हमारा देश आज आजादी के 68 साल बाद गुज़र रहा है।

इससे कुछ दिन पहले भी एक और वाकया हुआ था। देश के एक बड़े नेता मुलायम सिंह यादव से टेलीफोन पर हुई बातचीत एक पुलिस अफसर अमिताभ ठाकुर ने टेप की थी जिसे उन्होंने मीडिया को जारी किया। मुलायम सिंह यादव देश के एक बड़े नेता हैं। उनके विचार और नीतियों से आप सहमत हों, न हों, लेकिन उनके राजनीतिक कद और राजनीति में उनके योगदान को आप नकार नहीं सकते। इस पुलिस अफसर से उनकी बातचीत क्या थी, उसमें पड़े बिना मुझे ऐसा लगा कि उसकी रिकॉर्डिंग करके उस अफसर ने कई मर्यादाओं का उल्लंघन किया।

समाज में लोगों के बीच विश्वास, यकीन और आस्था की एक महीन डोर होती है। दो मनुष्यों के बीच सामाजिकता की पहली कड़ी ये आस्था ही होती है। ये अलिखित भरोसा ही पूरी समाज व्यवस्था का आधार है। और इसी के आधार पर हमारी बाकी अन्य व्यवस्थाएं और तंत्र पैदा हुए हैं। मानव जीवन की जितनी भी व्यवस्थाएं हैं, जैसे कि राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और यहां तक कि परिवारीय व्यवस्था भी इसी के आधार पर चलती है। इसके बिना कोई देश, तंत्र, समाज या परिवार नहीं चल सकता। इसे अलग अलग नाम दिए जाते हैं। कभी इसे लोकलाज, कभी इसे ‘आंखों की शरम’, कभी इसे निजता, कभी इसे ‘बात रखना’ और कभी इसे ‘संबंधों की पवित्रता’ कहा जाता है।

अपने देश में आज जो सबसे बड़ा संकट है, वो आस्था का ही है। दोस्तों, पति-पत्नी, दफ्तर में सहकर्मियों, युवा प्रेमियों, राज नेताओं, राजनीतिक दलों, व्यापारिक घरानों, आस पड़ोसियों और यहां तक कि परिवारों में भाई-भाइयों में भरोसे की ये कमी साफ़ दिखाई देती है। हर कोई दूसरे से चालाक बनने की कोशिश में नज़र आता है। संसद न चल पाने से लेकर टूटते रिश्तों और तलाक के बढ़ते मामलों के पीछे अगर कोई एक मूल वजह है तो वो है टूटता हुआ भरोसा। वैसे टेक्नोलॉजी ने हमें हजारों नियामतें बख्शी हैं, मगर हमारे बीच रिश्तों की डोर के कमज़ोर होने की एक बड़ी वजह सहज रूप से उपलब्ध 'जासूसी' तरकीबें भी हैं।

जिस तरफ देखिये तो आपको कोई न कोई किसी का ‘स्टिंग’ करता हुआ नज़र आएगा। दफ्तर में सहकर्मी बातचीत को टेप करते मिलेंगे तो प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे के फोन को टेप करते दिखाई देंगे। राज नेताओं ने तो ऐसे लोगों की फौज ही लगा रखी है जिनका धंधा ही ‘स्नूपिंग’ है। अगर अच्छे और स्वस्थ संबंधों का आधार विश्वास, भरोसा और यकीन है तो सोचिये जो संबंध शुरू ही अविश्वास से हो रहे हैं, उनका भविष्य क्या होगा?

आस्था का ये संकट आज देश की सबसे बड़ी मानसिक विपत्ति है। आजादी के 68वें साल में अगर कोई कामना है तो यही कि इस अविश्वास से मुक्ति मिले। नहीं तो घुन की तरह ये हमारे सामाजिक, पारिवारिक और राजनीतिक जीवन को खोखला कर देगा।


उमेश उपाध्याय
15 अगस्त ‘15

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