हिन्दू परंपराएं और सुप्रीम कोर्ट की नासमझी
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हिन्दू परंपराओं, संस्कृति एवं जीवनशैली की पढ़ाई करने की सख्त जरूरत हैं। पिछले दिनों उनके फैसलों से लगता है कि उन्हें इनकी तनिक भी जानकारी नहीं हैं। अगर ऐसा होता तो सबरीमाला और दिवाली पर पटाखे फोडऩे को समय सीमा निर्धारण करने जैसे बेतुके और अव्यावहारिक फैसले ये न्यायाधीश नहीं सुनाते। इन दोनों फैसलों से सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीशों के अज्ञान, सतहीपन और चिर स्थापित सामाजिक मान्यताओं के प्रति उनकी संवेदनशून्यता की एक झलक मिलती है।
सबसे पहले दीपावली पर पटाखे छोडऩे की समय सीमा रात आठ से दस बजे के बीच तय किये जाने की बात करते हैं। भारत का एक अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति भी जानता है कि दीपावली के दिन पटाखे घरों में लक्ष्मी पूजन संपन्न होने के बाद छोडऩे की परंपरा है। लक्ष्मीगणेश पूजन का समय हर दीपावली को पंचाग देखकर तय होता है। यह समय हर साल बदलता ही है। अब क्या सुप्रीम कोर्ट ये तय करने का अधिकार रखता है कि पूजन का मुहूर्त कब हो? क्या शताब्दियों से चली आ रही पंचाग गणना को बदलने का अख्तियार इन अंग्रेजीदा न्यायाधीशों को हैं? अगर नहीं तो फैसला सुनाते हुए उन्हें ये साधारण सी बात समझ क्यों नहीं आई?
इसका एक व्यावहारिक पक्ष भी है। पूरे भारत में दीपावली के दिन बाजार सजते हैं। छोटे से लेकर बड़े दुकानदार तक और व्यवसायी देर रात तक अपने प्रतिष्ठान लक्ष्मी के स्वागत के लिए खोलकर रखते हैं। लोग देर शाम तक बाज़ारों में खरीददारी करते हैं। उसके बाद ही वे घर लौटकर लक्ष्मी-गणेश की पूजा कर पाते हैं। दूकान, कारखानों और निजी दफ्तरों में दिये जलाने के बाद लोगों के घर लौटने के पश्चात पूजा और फिर आतिशबाजी होती है। क्या सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि दीपावली के दिन सारे बाजार और प्रतिष्ठान आठ बजे से पहले बंद कर दिए जाएं? कैसी मूर्खतापूर्ण बात है? सुप्रीम कोर्ट और सरकार पूरा ज़ोर लगा भी ले तो भी लोग ऐसा नहीं करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश थोड़ा भी संवेदनशील होते तो ऐसा अव्यावहारिक फैसला नहीं सुनाते।
यही झलक सुप्रीम कोर्ट के सबरीमाला फैसले में भी दिखाई देती है। एक महत्वपूर्ण मंदिर की परंपराओं को नासमझी के कारण कोर्ट ने ऐसा फैसला सुना दिया जो लागू ही नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को ठीक से समझा ही नहीं। श्रद्धा, आस्था और परंपरा के प्रश्न को न्यायाधीशों ने महिला अधिकारों और समानता अधिकार के गलत तराजू से तौलने का प्रयास किया। भगवान अयय्प्पा का मंदिर कोई स्कूल, कॉलेज या व्यापारिक संस्थान नहीं है जहां जो जैसे चाहे वैसे जा सकता है। हर धार्मिक स्थान की अपनी विशिष्टता होती है। परंपराओं में बदलाव तभी हो सकता है जबकि वहां के श्रद्धालु चाहें। कोई भी अश्रद्धावान व्यक्ति धर्मस्थान में अपने तरीके से जाने की जिद नहीं कर सकता। उसकी इस ज़िद को उसके नागरिक अधिकारों का हनन नहीं माना जा सकता। और उसके कथित अधिकारों के हनन के आधार पर अदालत या प्रशासन ये नहीं तय कर सकते कि वहां क्या होना चाहिए।
किसी को यदि एक मंदिर की परंपराएं या मान्यता पसंद नहीं है तो वह वहां न जाने के लिए स्वतंत्र हैं। वह नागरिक उस देवता को न मानने के लिए भी स्वतंत्र हैं। पर अभक्त और अश्रद्धावान लोग अपने ही तरीके से किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे अथवा गिरजाघर में प्रवेश करने का हक कैसे मांग सकते है? क्या अदालत हमारी धार्मिक मान्यताओं में दखल देने का हक रखती है? क्या उच्चतम न्यायालय की काम अब ये हो गया है कि वह सारा कामकाज छोड़कर कुछ 'एक्टिविस्टो' के हाथों में खेलने लगे? ये 'एक्टिविस्ट' जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग करके जन भावनाओं से खेल रहे हैं। इन्ह्ने किसने अधिकार दिया कि ये तय करें की मंदिर में कौन प्रवेश करेगा कि नहीं? क्या सुप्रीम कोर्ट हिन्दुओं को छोड़कर अन्य मजहबों की परंपराओं, त्योहारों और धार्मिक स्थानों के तौर-तरीकों के बदलाव के लिए भी इतनी त्वरित गति से क्रियाशील होगा?
दरअसल आजादी के बाद से ही एक विकृत सेकुलरवाद का कीड़ा हमारे देश में लग गया है। भारत का पूरा बुद्धिजीवी व प्रभु वर्ग तथा प्रशासनिक/न्यायिक तंत्र इस मानसिकता का शिकार है। बहुसंख्यक हिन्दुओं की आस्थाओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों, परंपराओं आदि में दखल देना और उनका उपहास उड़ाना जैसे एक शगल हो गया है। हिन्दुओं को पुरातनपंथी, असहिष्णु और अनुदारवादी बताना मानो एक फैशन है। चाहे होली हो या दीवाली - पर्यावरण के ज्ञानी इन्हीं दिनों में जागते हैं। भारत के परम्परिक त्योहारों, उत्सवों, रवायतों और कुल मिलाकर हिन्दुओं को 'ठीक' करने की ये मुहिम शताब्दियों से जारी है। अन्य किसी मजहब के बारे में इन लोगों की ऐसी सक्रियता कभी दिखाई नहीं देती। सोचिए, नहीं तो समाज की मान्यताओं के प्रति ऐसी संवेदनशून्यता कोई दिखा सकता था?
सबरीमाला और दीपावली पटाखों से संबंधित फैसलों को देखकर तो लगता कि हिन्दू परंपराओं के प्रति इतने पढ़े-लिखे और विद्वान लोगों में प्रारंभिक ज्ञान की भी कमी है। इसलिए बहुत आवश्यक है कि हमारे बुद्धिजीवी - खासकर न्यायाधीश और वकील हिन्दू ज्ञान परंपरा के प्रारंभिक पाठों का अध्ययन करें ताकि उनसे ऐसी बेसिक गलतियां न हों। नहीं तो वे ऐसे और भी फैसले देते रहेंगे जो जमीन पर कभी लागू हो ही नहीं सकते। ऐसा हुआ तो समाज तो अपनी गति से चलता रहेगा परन्तु न्याय प्रणाली की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी।
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