राम जन्मभूमि मामले की तुरंत सुनवाई होकर जल्दी फैसले की उम्मीद रखने वालों को एक बार फिर निराश होना पड़ा है। आशा थी कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को महत्वपूर्ण मानते हुए शीघ्र से शीघ्र एक बैंच विठाकर मामले की फटाफट सुनवाई करेगा। इसलिए 29 अक्टूबर को अदालत का क्या रुख होगा इस पर सबकी नजरे जमी हुई थी। लेकिन उच्चत्तम न्यायालय ने फैसला किया है कि अगले साल जनवरी के पहले सप्ताह में एक बैंच बैठेगी। वही बेंच तय करेगी की अयोध्या मामले की सुनवाई कैसे हो। यानि मामले के जल्दी न्याययिक समाधान का मसला फिर लटक गया।
वैसे तो अदालत के विवेक पर निर्भर है कि वह किस मामले को कितनी प्राथमिकता और महत्व दे और आमतौर से उसपर ऊँगली नहीं उठायी जाती। परंतु इस निर्णय के बाद मन में कई सवाल तो उठते ही हैं। यदि इन सवालों को सामने नहीं लाया गया तो वह बौद्धिक ईमानदारी नहीं होगी। इसीलिये इन सवालों से बचा नहीं जा सकता। #राममंदिर का मामला करोड़ों भारतीयों की आस्था का प्रश्न हैं। इसलिए इस मामले के महत्व और उसकी गंभीरता को हमारी न्याय व्यवस्था और खासकर उच्चत्तम न्यायालय के न्यायाधीश भी समझते होंगे। ऐसा मानना स्वाभाविक ही है। परंतु सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में वांछित गति की कमी दिखाई दी है।
वैसे तो कोई भी एक मुकदमा किसी दूसरे मुकदमें से उसके न्यायायिक संदर्भों,
उसकी पृष्ठभूमि, उसके प्रभाव, अंतर्निहित प्रक्रिया और उसकी सामाजिक-राष्ट्रीय गहनता के विषय में एक जैसा नहीं होता। फिर भी कोर्ट और हमारी न्याय व्यवस्था किन मुद्दों को अधिक महत्वपूर्ण मानती है और किन को कम - यह अंदाजा कुछ मसलों को सरसरी निगाह से देखने से ही लगाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने जब रात तीन बजे अदालत लगाकर याकूब मेमन जैसे आतंकी की फांसी की सजा रोकने के मामले की सुनवाई की थी तो कुछ लोगों ने इसे नागरिकों के अधिकारों के प्रति सुप्रीम कोर्ट की सजगता का नमूना बताया था। आप कह सकते है कि इस मामले में तो एक व्यक्ति की जान का सवाल था। हर व्यक्ति का जीवन तो महत्वपूर्ण है ही।
एक और मुकदमा देखते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केरल के #सबरीमाला मंदिर में कुछ महिलाओं के प्रवेश के मामले पर सुनवाई करके एक फैसला सुनाया। इस मामले में उच्चत्तम न्यायालय ने अक्टूबर
2017 में सविंधान पीठ का गठन किया और सितम्बर 2018 में फैसला सुना दिया । सबरी माला में एक खास उम्र की महलिाओं के प्रवेश का मामला भी आस्था और विश्वास से जुड़ा मामला था। इसी तरह #दीपावली पर किस समय #पटाखे जलाए जाऐंगे और किस किस्म के पटाखे चलाये जायेंगे ये फैसला भी उच्चत्तम न्यायालय ने जल्दी ही सुनाया।
इन मामलों की तुलना न करते हुए भी कोर्ट के ताज़ा फैसले से ये तो लगता ही है कि अयोध्या में #राममंदिर का मुकदमा उसकी प्राथमिकता में पीछे तो आता ही है। क्या इस तरह की तेज़ी और त्वरित गति रामजन्मभूमि का मामला हल करने में नहीं दिखाई जानी चाहिए? क्या राम मंदिर के मुक़दमे से करोड़ों भारतीयों की आस्था और उनके धार्मिक अधिकार नहीं जुड़े हुए?
कई बार तो ऐसा लगता है कि कुछ एक्टिविस्टों और एक्टिविस्ट वकीलों के शोर का हमारी अदालतों पर बहुत जल्द और ज़्यादा असर पड़ जाता है। जब भी एक खास तरह का विचार रखने वाले ये एक्टिविस्ट तथाकथित जनहित याचिकाएं लेकर आते हैं तो उनकी सुनवाई भी जल्दी होती है और फैसले भी जल्दी आते हुए दीखते हैं। हो सकता है ये लोग न्यायिक प्रक्रियाओं और हमारी न्यायव्यवस्था के गलियारों को ज़्यादा नज़दीकी और बारीकी से जानते हों। पर न्याय की देवी इन शोर मचाने वालों की दासी की तरह तो नहीं दिख सकती। इनकी आवाज़ और विचारों को ही पूरे समाज की साझा चेतना का प्रतीक तो नहीं माना जा सकता। ये एक्टिविस्ट ही आस्था के सवालों पर देश का एंजेडा तो तय नहीं कर सकते।
इसलिए स्वाभाविक तौर पर कुछ लोग ये सवाल कर सकते है कि अदालत को #रामजन्मभूमि मामले में भी अपेक्षाकृत अधिक तेज़ी दिखानी चाहिए। करोड़ों हिंदुओं की आस्था, उनके पारम्परिक विश्वास और उनके धार्मिक अधिकारों से जुड़ा ये मामला दशकों से प्रक्रियाओं के चक्कर में ही फंसा हुआ है। #उच्चत्तमन्यायालय देश की सबसे बड़ी अदालत है और हर भारतीय की उसमें अटूट आस्था है। परन्तु कहा जाता है कि न्याय होना ही पर्याप्त नहीं होता। न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए।
एक और बात कहनी ज़रूरी है। अन्ततोगत्वा सभ्य समाज के हर कानून और उससे जुडी न्यायिक प्रक्रिया का जन्म मनुष्य के व्यवहार,
उसकी मान्यताओं, परंपराओं,
समाज के जीवन मूल्यों और आस्थाओं से ही हुआ है। इसलिए बृहत सामाजिक संवेदनाओं के साथ न्याय प्रणाली का तादात्म्य होना बेहद ज़रूरी है। इस नाते #अयोध्या मंदिर के मामले मे जल्दी सुनवाई की अपेक्षा रखना सहज स्वाभाविक ही है। ऐसा अगर होता तो ये अधिक बेहतर होता। इससे #सुप्रीमकोर्ट की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग जाते।
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